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गुरुवार, 11 नवंबर 2021

B ग्रेड फ़िल्मों की वो सच्चाई, जो सिर्फ़ पर्दे के पीछे छिपी रहती है

The truth of B grade films, which only remains hidden behind the scenes

हर साल भारत में 200 से ज़्यादा B-Grade फ़िल्में बनती हैं.

इन फ़िल्मों को सॉफ़्ट पॉर्न का दर्जा प्राप्त होता है और इसमें काम करने वालों को समाज में कितनी इज़्ज़त मिलती है, वो तो पूछिए ही मत 

दुनिया में सबसे अधिक फ़िल्में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में बनती है. इसमें भी सिर्फ़ उन्हीं फ़िल्मों की गिनती होती है, जो सेंसर बोर्ड से सर्टिफ़िकेट पा कर पर्दे तक जाती हैं. ऐसी भी बहुत फ़िल्में होती हैं, जो सेंसर बोर्ड के दरवाज़े पर नहीं जाती. अमूमन उन्हें B या C ग्रेड की फ़िल्म कहा जाता है.

The truth of B grade films, which only remains hidden behind the scenes

इन फ़िल्मों को सॉफ़्ट पॉर्न (Soft Porn) का दर्जा प्राप्त होता है और इसमें काम करने वालों को समाज में कितनी इज़्ज़त मिलती है, वो तो पूछिए ही मत. यहां तक कि इन पिक्चर्स को थियेटर में जा कर देखने वाले दर्शक भी इससे जुड़े लोगों को हिकारत भरी नज़र से देखते हैं.

दीवाना में शाहरुख ख़ान के दोस्त का किरदार निभाने वाले तिलक बाबा आज बी-ग्रेड फ़िल्मों में बड़ा नाम हैं, वो अपनी फ़िल्मों निर्देशक, निर्माता, लेखक और हीरो की भूमिका निभाते हैं. उनका दावा कि वो इस काम से महीने का 2 लाख मुनाफ़ा कमा लेते हैं.

आमतौर पर चार दिन की शूटिंग में एक बी-ग्रेड फ़िल्म पूरी हो जाती है. इसको बनानें में 10 से 12 लाख का ख़र्चा होता है और मुनाफ़ा लगभग 5 लाख के आस-पास लेकिन ये मुनाफ़ा किश्तों में आता है क्योंकि बी ग्रेड फ़िल्म पूरे देश में एक साथ रिलीज़ नहीं होतीं.

इन फ़िल्मों में काम करने वाली ज़्यादातर अभिनेत्रियां मुश्किल हालातों से गुज़रते हुए वहां पहुंचती हैं, तो कुछ को पैसे की चाहत भी बी-ग्रेड फ़िल्म के सेट पर पहुंचा देती है.

अम्रावती से मुंबई काम की तलाश में पहुंची तन्नु को कई दिनों तक स्टेशन पर गुज़ारा करना पड़ा. 2005 में उसे बी-ग्रेड फ़िल्म में काम करने का ऑफ़िर मिला. अब वो कई फ़िल्मों में आ चुकी है और हर फ़िल्म का 60 हज़ार चार्ज़ करती है.

वहीं इस इंडस्ट्री में 20 साल की फ़िज़ा ख़ान भी काम करती है, जिसकी चाहत एक दिन इंडस्ट्री की बड़ी अभिनेत्री बनने की है. फ़िज़ा ने बी-ग्रेड फ़िल्मों को छोटी सीढ़ी समझ अपना पांव रखा है.

जैसे-जैसे सिंगल पर्दे का चलन कम होता जा रहा है वैसे-वैसे बी-ग्रेड फ़िल्में भी अपने अस्तित्व के बचाव के लिए उपाय ढूंढ रही है. सिनेमाहॉल के पर्दों से उतरकर बी-ग्रेड फ़िल्में YouTube पर अपलोड होने लगी हैं.

आज लगभग 300 YouTube Channel बीग्रेड फ़िल्मों से जुड़ी सामग्री को अपलोड करते हैं, YouTube से भी निर्माता को लगभग 2 से 3 लाख का लाभ हो जाता है.

अब हम इन्हें चाहे बीग्रेड सिनेमा कहें या कोई और नाम दे दें लेकिन ये हमारे समाज की सच्चाई है. डिमांड एंड सप्लाई थ्योरी के आधार पर ये काम कर रहे हैं. अगर कला के स्तर पर इसकी आलोचना की जा सकती है, तो फिर उतनी ही तीखी आलोचना हमारे समाज की भी होनी चाहिए.



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