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किसानों आंदोलन के नाम पर 'अन्नदाता' कह-कह कर खूब इमोशनल ब्लैकमेल चल रहा है। बात ही चली है अन्नदाता पे तो बता दे क्या दिल छूने वाली बात कही किसी ने जिससे लगा कि कुछ ज्यादा हि ज्यादती हो रही है जैसे ज़बरदस्ती थोपा जा रहा हो यह शब्द।
"मेरा कोई अन्नदाता नहीं है, मैं मेहनत करके अपने एवं अपने परिवार का पेट भरता हूँ। तो किसी को भी अन्नदाता कह कर मेरी मेहनत को शर्मिंदा व अपमानित न करें। जितनी मुझे अन्न की जरूरत है, उतनी ही किसान को भी अपने उपज बचने की जरुरत है।
हम एक दूसरे के पूरक हैं, ना किसी का दाता ना मैं याचक। कोई किसान यह नहीं कहता की "मैं अपने परिवार के लिए पर्याप्त अन्न के अलावा सारी उपज दान करूँगा। " तो ज़बरदस्ती का अन्नदाता हम पर ना थोपें, अगर सही मायने में इस देश का कोई दाता है, तो वह "करदाता" है, जो अपनी कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा देश की उन्नति के लिए प्रदान करता है, वह करदाता जिसका कर पहले कटता है और तनखाह बाद में आती है, वह करदाता जिसके कर से इन तथाकथित दाताओं को कई प्रकार की सब्सिडी और कर्जमाफी मिलती है।
अगर इसी तरह चलता रहा तो कल को जीवन दाता (डॉक्टर), न्यायदाता (जज या वकील), ज्ञानदाता (शिक्षक), इंधनदता (पेट्रोल पंप मालिक), इत्यादि दाताओं के संगठन प्रदर्शन के नाम पर सड़के रोकर अराजकता फैलाने की प्रेरणा लेते रहेंगे। "
बात तो बिलकुल सच ही कहा गया है आखिर कलयुग है कौन आज के समय देता है एक हाथ लो एक हाथ दो यही निति है समाज में, फ्री तो बिलकुल नहीं। हमारे दिल्ली के मुखिया की बात तो कुछ और ही है। ये लोग जो उगाते हैं वो बेचते हैं, कीमत लगाते हैं, कीमत यदि आप नही दे पाएँगे तो आपको समान तो छोड़िये दो दाने तक नही देंगे।
अगर कुछ लोगो को लगता है ये सब अन्नदाता है दिल से उनको लगता है या उनको सम्मान देना ही मकसद है तो ठीक है किन्तु किसी से ज़बरदस्ती तो नहीं बुलवा सकते। बाकि मदभेद तो चलता ही रहेगा। बात रखने की आजादी सब को है जब तक की हिंसा न हो। आखिर हिंसा से किसी को क्या मिला है। क्यूंकि इस तथाकथित बुद्धिजीवियों को ये तो भली भांति पता है "जैसा बोओगे वैसा फल पाओगे" आखिर किसान जो है। कसमो में सबसे बड़ी कसम कही गयी है कसम पैदा करने वालों की। किसान भी पैदा करते हैं अनाज सब्जी दलहन तिलहन और आंदोलन।
किसानो को बार बार अन्न दाता कहा जा रहा है और उनके इस पर्यावाची शब्द को वो लोग आंदोलन विरोधियों पर मार रहें हैं जो हमेशा ये कहते हैं कि बॉर्डर पर जवान मर रहे हैं ये कह कर आप उन्हें चुप नहीं करा सकते उन पर लोकतंत्र में सबाल पूछे जायेंगे लेकिन किसानो से आप सबाल नहीं पूछ सकते खास तोर उनसे तो बिलकुल नहीं जो आंदोलन करने के लिए ही किसान बने हैं। इसके साथ एक और बाम पंथी तत्त्व के ज्ञान को समझिये इतने लोग आये हैं कुछ तो सही बात होगी। ऐसी ही कुछ तो बात होगी वाली दलील शाहीन बाग वालो ने दी थी। जिसका परिणाम दिल्ली वाले भुगत चुके हैं।
सब से परे अन्नदाता है भाई मामूली चीज थोड़े ही है, हम लोगो ने क्या दिया है। अन्न दिया है ? कोई अगर ये कहे अन्न अगर फ्री में नहीं दे रहे तो काहे के अन्नदाता। ऐसे ही तीसरी कक्षा में पढ़ा " नहीं हुआ है अभी सबेरा सूरज कि लाली पहचान। चिड़ियों के जागने से पहले खाट छोड़ के चला किसान। " ये ध्यान से नहीं पढ़ा। कितनी भावुक कविता है। और अगर सीनियर क्लास में यही कविता पढाई जाती तो अगली पंक्तिया यह होती कि " कानूनों को पढ़ने से पहले आंदोलन करने चला किसान । "
देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज किसान को सड़क पर इस सर्दी में बैठना पड़ रहा है। क्या मांगा हे उनकी बस यही न तीनो बिल जो 27 करोड़ वयस्को द्वारा चुने हुए सांसदों ने काफी गहन बिचार के बाद पास किया उसे सरकार बापस ले लें। क्यूंकि 32 संघठन का, अब आप यह सोचिये 305 संसद ज्यादा है या 32 संघठन में सामील दसियों किसान? क्या सांसद अब किसान के लिए कानून बनाएंगे ? फिर आप कहेंगे कानून बनाने का काम तो सांसद का ही है, बात सही है किन्तु जरुरी नहीं जो काम लम्बे समय से होता आ रहा हो, तो जरुरी नहीं वो सही है। जैसे पहले के किसान इस सीजन में खेती करते थे, अब नहीं कर रहे। पहले के किसान खेती कि बेहतरी कि मांग करते थे। अब वाले जो हैं अर्बन नक्सल हो दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगो को भड़काने वालो कि रिहाई पे बात कर रहें हैं।
पहले के किसान ट्रैक्टर से खेती करते थे अब वाले ट्रैक्टर में आंग लगाते हैं। इसलिए पहले सांसद कानून बनाते थे तो अब भी वो ही बनाएंगे। तो ये उचित बात नहीं होगी, अच्छी बात तो यह होगी कि किसान अपना कानून सवयं बनाये। आतंकी UA PA संसोधन करें और डॉक्टर निजी प्रैक्टिस पर बिल बनाये। चुन कर आने का मतलब ये थोड़ी है कि आपको खेती भी आती है।
किसान का मतलब यह नहीं होता कि फटी हुई गंजी पहने हुए दरारों वाले धान के खेत में सर पर हाथ रखे चिलचिलाती धुप में सूरज को ताकता रहे। किसान का मतलब है अन्नदाता। किसान का मतलब है वो वो सड़के बंद करा सकता है। रेल रोक सकता है। जरुरत पड़े तो सड़क पर प्रोजेक्टर लगा सिनेमा देखते हुए एन्जॉय कर सकता है। किसानों के आंदोलन के नाम पर 'अन्नदाता' कह-कह कर खूब इमोशनल ब्लैकमेल चल रहा है। जबकि वहाँ खालिस्तानी समर्थक और दिल्ली के दंगाइयों को समर्थन देने वाले वामपंथियों का जुटान हो रखा है।
Note: उपरोक्त सार में जो भी बात कही गयी वो भारत के असली किसानो से तालुक नहीं रखता है न हि उनको निशाना बनाया गया है। क्यूंकि वो सही माइनो में मेहनत करते हैं और फसल उगाते है और जो हम तक पहुँचता है भले हि उसकी कीमत हम देते हैं। उनको अगर अन्नदाता कहते हैं तो कोई गलत नहीं। जिन्होंने दिल्ली में दंगे किये उपदर्व् मचाया तथा पुलिस पे हमले किये हमने उनकी बात की है जो समाज में अराजकता फैला रहे हैं और भारत की छवि विदेशो में ख़राब करने की चेस्टा कर रहें है।
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